मध्यप्रदेश

पूर्व पटवारी पर घूस लेने और ठगी का आरोप, जांच में सामने आई सच्चाई, 23 साल बाद हाई कोर्ट से बरी

बिगुल
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने सरगुजा जिले के पूर्व पटवारी परमानंद राजपूत को रिश्वतखोरी और ठगी के आरोपों से बरी कर दिया है. न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत की एकलपीठ ने 20 अगस्त 2002 को सत्र न्यायालय अंबिकापुर द्वारा सुनाई गई सजा को निरस्त करते हुए कहा कि अभियोजन यह साबित करने में पूरी तरह विफल रहा कि आरोपित ने रिश्वत मांगी या ली थी.

क्या है पूरा मामला
ये मामला 1999 का है. ग्राम पंचायत अमरपुर के तत्कालीन सरपंच रामप्रसाद ने रिपोर्ट दर्ज कराई थी कि उस समय पदस्थ पटवारी परमानंद राजपूत ने ग्रामीणों से सरकारी जमीन का पट्टा दिलाने के नाम पर रुपये वसूले थे. आरोप था कि पटवारी ने उनसे रकम लेकर न तो पट्टा जारी किया और न ही पैसा लौटाया. इस पर उसके खिलाफ धारा 420 (धोखाधड़ी) और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 के तहत अपराध दर्ज किया गया. विशेष न्यायालय ने वर्ष 2002 में उसे तीन-तीन साल की सजा और 3000-3000 का जुर्माना लगाया था. दोनों सजाएं साथ-साथ चलनी थी. इसी सजा के खिलाफ आरोपित ने हाई कोर्ट में अपील दायर की थी.

पूर्व पटवारी पर घूस लेने और ठगी का आरोप
अभियुक्त की ओर से अधिवक्ता एन.के. मालवीय ने तर्क दिया कि पूरे रिकार्ड में यह कहीं साबित नहीं है कि पटवारी ने कभी किसी से रिश्वत मांगी या स्वीकार की. न तो कोई रकम बरामद हुई, न ही ट्रैप कार्रवाई की गई. ग्रामीणों ने कब और कहां पैसा दिया, इसका कोई ठोस विवरण नहीं है. उन्होंने यह भी कहा कि जमीन का पट्टा जारी करने का अधिकार पटवारी का नहीं बल्कि तहसीलदार का होता है, इसलिए आरोपित का इस कार्य से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था. कई गवाहों ने अपने बयान में कहा कि उन्होंने स्थानीय विधायक के दबाव में पुलिस को बयान दिए.

आरोप साबित नहीं हुआ
राज्य सरकार की ओर से अधिवक्ता ने कहा कि आरोपित ने ग्रामीणों से जमीन पट्टा के लिए रुपये मांगे और लेने के बाद भी जमीन नहीं दी, जिससे उसका अपराध साबित होता है.

हाई कोर्ट ने किया अवलोकन, कई खामियां सामने आईं
अदालत ने 18 गवाहों के बयान और पूरे दस्तावेजी साक्ष्य का बारीकी से परीक्षण किया। पाया गया कि, अधिकांश गवाहों ने अदालत में अपना बयान बदल दिया या कहा कि उन्होंने किसी और के कहने पर बयान दिए. किसी भी गवाह ने यह नहीं बताया कि आरोपित के पास से कोई रकम बरामद हुई। जांच ऐसे पुलिस अधिकारी (सब-इंस्पेक्टर) ने की, जिसे भ्रष्टाचार अधिनियम के तहत जांच करने का अधिकार ही नहीं था, जबकि कानून के अनुसार यह कार्य डीएसपी या उससे उच्च अधिकारी द्वारा होना चाहिए. कई ग्रामीण गवाहों ने कहा कि पटवारी ने उनसे कोई रकम नहीं मांगी थी। यह भी स्पष्ट हुआ कि पट्टा जारी करने का अधिकार तहसीलदार का था, इसलिए आरोपित इस कार्य में सक्षम प्राधिकारी नहीं था. न्यायमूर्ति राजपूत ने कहा कि अभियोजन यह साबित नहीं कर सका कि आरोपित ने किसी से अनुचित लाभ की मांग या स्वीकृति की. रिश्वत के मामलों में डिमांड और एक्सेप्टेंस (मांग और स्वीकारोक्ति) का प्रमाण आवश्यक होता है, जो यहां नहीं मिला. साथ ही जांच प्रक्रिया में भी गंभीर त्रुटियां रहीं.

23 साल बाद हाई कोर्ट से बरी
अदालत ने कहा कि निचली अदालत ने साक्ष्यों की सही व्याख्या नहीं की और अपर्याप्त साक्ष्य के आधार पर सजा सुनाई. इसलिए हाई कोर्ट ने आरोपित को सभी आरोपों से बरी कर दिया. न्यायमूर्ति राजपूत ने कहा कि, अभियोजन अपने आरोप संदेह से परे सिद्ध नहीं कर सका. साक्ष्यों की उचित सराहना न होने के कारण सजा टिक नहीं सकती. इस फैसले से 23 साल बाद परमानंद राजपूत को बड़ी राहत मिली. अदालत ने कहा कि चूंकि वह पहले से ही जमानत पर था, इसलिए उसके जमानती बंधपत्र निरस्त किए जाते हैं और उसे अब किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई का सामना नहीं करना होगा.

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