राहुल गांधी अमेठी छोड़कर रायबरेली की सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। इससे पहले 2004 में सोनिया गांधी ने उनके लिए अमेठी की सीट छोड़ कर रायबरेली से चुनाव लड़ा था। राहुल का चुनावी करियर अमेठी से शुरू हुआ था।
इसके बीस वर्षों बाद सोनिया गांधी के रायबरेली छोड़ने पर राहुल एक बार फिर पुराने इतिहास को दोहरा कर इस सीट से चुनावी मैदान में उतरे हैं। लोकसभा में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व उनके दादा फिरोज गांधी, दादी इंदिरा गांधी व मां सोनिया गांधी करते आए हैं।
अमेठी की तुलना में रायबरेली की सीट कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा सुरक्षित मानी जाती है। इस सीट पर अभी तक हुए 20 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने 17 बार जीत दर्ज की है।
उत्तर प्रदेश में सपा के साथ गठबंधन करके कांग्रेस 17 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 15 सीटों पर पहले ही प्रत्याशियों की घोषणा की जा चुकी थी। केवल रायबरेली और अमेठी से प्रत्याशियों की घोषणा का इंतजार था।
उम्मीद की जा रही थी कि रायबरेली से प्रियंका गांधी को पहला चुनाव लड़ाया जाएगा और राहुल अमेठी से ही चुनावी मैदान में उतरेंगे। चुनाव लड़ने के लिए प्रियंका के राजी न होने पर यह खींचतान लंबी चली और पार्टी ने मल्लिकार्जुन खरगे को प्रियंका को मनाने की जिम्मेदारी सौंपी थी।
सोनिया गांधी ने भी प्रियंका को मनाने के प्रयास किए, लेकिन प्रियंका पार्टी को यह समझाने में कामयाब रही कि वह फ्री रहकर चुनाव प्रचार करके पार्टी को ज्यादा लाभ पहुंचा सकती हैं। राहुल वायनाड से भी चुनाव लड़ रहे हैं अगर दोनों सीटों पर जीतते हैं तो वायनाड की सीट प्रियंका के लिए छोड़ने की रणनीति पार्टी ने तय की है।
एक वजह और बताई जा रही है कि राहुल वायनाड से जीत को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। अमेठी से 2019 का चुनाव हार चुके हैं, इस बार भी स्मृति ईरानी से उन्हें कड़ी टक्कर मिलती। इसलिए पार्टी एक तीर से दो निशाने साधे हैं।
वहीं अमेठी से चुनावी मैदान में उतरने वाले किशोरी लाल शर्मा 40 वर्षों की गांधी परिवार की सेवा का पुरस्कार मिला है। मूल रूप से पंजाब के लुधियाना निवासी शर्मा को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी 1983 में पहली बार अपने प्रतिनिधि के रूप में अमेठी लेकर आए थे।
इसके बाद से वह अमेठी और रायबरेली में गांधी परिवार के दूत के रूप में सक्रिय रहे हैं। स्मृति ईरानी को शर्मा कितनी मजबूत चुनौती दे पाएंगे यह आने वाले कुछ दिनों में स्पष्ट होगा।
इस सीट पर 25 वर्षों बाद गांधी परिवार की बजाय कांग्रेस ने किसी अन्य को टिकट दिया है। साथ ही कोशिश कि है कि स्मृति ईरानी अगर दोबारा चुनाव जीतती भी हैं तो वह यह प्रचार न कर सकें कि राहुल को हराकर जीती हैं।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए यह लोकसभा चुनाव आखिरी उम्मीद बन गया है। 1984 के लोस चुनाव में उत्तर प्रदेश में 85 में 83 सीटें जीतकर सबसे शानदार प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस 40 वर्षों के अंदर 2019 के चुनाव में रायबरेली की एक सीट पर सिमट कर रह गई थी।
इस चुनाव में कांग्रेस की बड़ी जीत के पीछे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या बड़ी वजह बनी थी, लोगों ने इंदिरा लहर के नाम पर कांग्रेस 51.03 प्रतिशत वोट दिए थे। इसके बाद भाजपा, सपा और बसपा ने अपना-अपना जनाधार बढ़ाया और 2009 के लोस चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई।
1977 और 1998 में कांग्रेस एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर सकी थी। इसके बाद मुस्लिमों का वोट बैंक कांग्रेस का साथ छोड़कर सपा के साथ चला गया। वहीं बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के वंचित समाज के वोट बैंक पर अपना कब्जा कर लिया। 2014 व 2019 के चुनाव में भाजपा ने 71 व 62 सीटों पर जीत दर्ज कर उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का पत्ता साफ कर दिया था।
भाजपा कांग्रेस के अमेठी के किले को पिछले चुनाव में ही ध्वस्त कर चुकी है और इस बार अगर राहुल गांधी रायबरेली से चुनाव हार जाते हैं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से गांधी परिवार का बोरिया-बिस्तर सिमट जाएगा।
भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को बुलंद करने के लिए उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के सफाए की पूरी रणनीति तैयार कर ली है। एक तरफ जहां भाजपा ने 1.6 लाख बूथों पर मजबूत प्रबंधन किया है तो दूसरी तरफ कांग्रेस केवल 70 हजार बूथों पर ही प्रभारियों की तैनाती कर सकी है। इस बार बसपा ने भी अपना प्रत्याशी रायबरेली से उतारा है। इसलिए कांग्रेस की राह इतनी आसान होने वाली नहीं हैं