सैलजा ‘जीत’ गई-पार्टी हार गई, कांग्रेस की प्रदेश प्रभारी कुमारी सैलजा की भूमिका पर पत्रकार डॉ. अनिल द्विवेदी का विश्लेषण, सुनिए पूर्व मंत्री अमरजीत भगत ने क्या कहा
डॉ. अनिल द्विवेदी
रायपुर. विधानसभा चुनाव के ताजा नतीजों ने कांग्रेस को राज्य की सत्ता से बाहर कर दिया है. इस करारी हार के कई कारण संगठन में तलाशे जा रहे हैं. कोई इसे सरकार की नकारात्मक छबि करार दे रहा है तो कोई संगठन—सत्ता के बीच चली खींचतान का परिणाम बता रहा है. पार्टी का एक बड़ा तबका प्रदेश प्रभारी कुमारी सैलजा को जिम्मेदार मानता है.
विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार से कांग्रेस के जमीनी नेता और कार्यकर्ता गुस्से में हैं लेकिन वे इसे खुले तौर पर व्यक्त नही कर पा रहे हैं. उनका कहना है कि यदि सीएम भूपेश बघेल ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया है तो प्रदेश प्रभारी कुमारी सैलजा को भी नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए. क्योंकि यदि कांग्रेस सत्ता में वापसी करती तो सैलजा इसका श्रेय लेने से नही चूकतीं.
सैलजा बनाम पुनिया
सैलजा कांग्रेस की बेहद अनुभवी नेताओं में से एक हैं. फिर वे जनता और कांग्रेस कार्यकर्ता के मन में चल रहे अंडर करंट को पहचानने से कैसे चूक गईं. पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ताओं ने नाम ना छापने की शर्त पर इस संवाददाता से बात की. उनके बयान यह दर्शाते हैं कि हार का ठीकरा यदि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनकी सरकार पर फोड़ा जा रहा है तो दूसरी ओर प्रदेश प्रभारी कुमारी सैलजा के कुछ फैसलों ने भी पार्टी को इस स्थिति में ला पटका है. ऐसे में पूर्व प्रदेश प्रभारी पी एल पुनिया को याद किया जा रहा है जिन्होंने बेहतर तालमेल रखते हुए पार्टी को 2018 में सत्ता में ला दिया था. हालांकि दो साल बाद ही उन्हें प्रभारी पद से हटाते हुए सैलजा को प्रभारी बनाया गया था.
‘सब अपनी अपनी चलाने में निपट गए’
पूर्व खादय मंत्री अमरजीत भगत का यह बयान सुनिए जिसमें उन्होंने कहा कि सभी अपनी अपनी चलाने में निपट गए. क्या यह इशारा सैलजा की तरफ भी है! एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा कि सैलजा केंद्रीय आलाकमान का प्रतिनिधित्व कर रही थीं. पार्टी में कई खेमे हैं. उम्मीद थी कि उनके प्रभारी बनने से सभी को महत्व और प्रतिनिधित्व मिलेगा लेकिन वे सत्ता की चकाचौंध तक सीमित होकर रह गईं. जिस बदलाव की उम्मीद सैलजा से थी, वे उस पर खरा नही उतरीं.
ओवरकांफिडेंस ले डूबा
संगठन में जिन्हें पद मिला, वो सब नेताओं के कृपापात्र थे ना कि समर्पित और मेहनती कार्यकर्ता. निगम—मण्डल में हुई नियुक्तियों में हुए अन्याय को महसूस कर नेता और कार्यकर्ता हताश होकर घर बैठ गए. एक नेता ने कहा कि कांग्रेस कार्यकर्ता इस कदर असंतुष्ट थे कि वे प्रचार करने घर से बाहर ही नही निकले. उन्हें मनाने या घर से निकालने की कोई कोशिश भी नही हुई क्योंकि ‘ओवरकांफिडेंस’ था.
मजबूर दिखीं प्रदेश प्रभारी
आश्चर्य यह कि पूरे प्रदेश की तो छोड़ दीजिए, सैलजा राजधानी की हवा तक नही पहचान सकीं जहां से पार्टी पहली बार चारों सीटें हार गई. बाकी पूरे प्रदेश का हाल तो सब जानते ही हैं. सरगुजा—बस्तर से कांग्रेस लगभग साफ हो गई है. एक अन्य वरिष्ठ नेता ने कहा कि कांग्रेस सरकार की बिदाई में भ्रष्टाचार का अहम रोल रहा. जिस तरह ईडी की कार्यवाही हुई, पीएससी में भ्रष्टाचार हुआ, महादेव सटटा में कुछ नेताओं के नाम सामने आए, सैलजा को ऐसे समय में बड़ी भूमिका निभानी थी. वे चाहती तो हस्तक्षेप करते हुए कड़ी कार्यवाही करने को सरकार को कह सकती थीं लेकिन मजबूरी में कुछ ना कर सकीं.
सिंहदेव की अनुशासनहीनता
गुजरे कालक्रम को याद कीजिए जब ढाई—ढाई साल का कार्यकाल वाले विवाद ने पार्टी को डैमेज किया था. इसका हल चुनाव के चार महीने पहले निकाला गया जब सिंहदेव को डिप्टी सीएम बनाया गया. इससे पार्टी या सरकार को क्या लाभ हुआ. फिर सिंहदेव ने अपनी ही सरकार के खिलाफ पत्र लिखा, यह अनुशासनहीनता थी. प्रदेश प्रभारी के तौर पर कड़ा एक्शन होना था लेकिन नही हो सका. आखिर सिंहदेव के लिखे पत्र को ही आधार बनाकर भाजपा ने 14 लाख आवास वाले मामले में कांग्रेस सरकार को जनता के बीच अविश्वसनीय बनाकर रख दिया.
फैसलों ने डुबोया
ऐसे में सैलजा को चाहिए था कि वे सिंहदेव के खिलाफ कड़ा एक्शन ले सकती थीं लेकिन हिम्मत नही जुटा सकी. डेपुटी सीएम का मुददा हो या मोहन मरकाम को मंत्री बनाने का फैसला, या फिर टेकाम को योजना आयोग का अध्यक्ष बनाने का निर्णय, सब कुछ सैलजा के सुझाव पर हुआ. इससे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अलग—थलग दिखाई दिए.
सबसे बड़ा झटका विधानसभा चुनाव के दौरान लगा जब एंटीइनकमबेंसी वाले लगभग 38 विधायकों की टिकट काटना तय हुआ मगर सिर्फ 22 विधायकों के ही टिकट काटे गए. बाकी को अभयदान दे दिया गया. नतीजन नौ मंत्री सहित कई विधायक चुनाव हार गए. सूत्रों के मुताबिक सीएम भूपेश बघेल लगभग 30 विधायकों का टिकट काटना चाहते थे लेकिन आलाकमान के दबाव में हो ना सका अन्यथा तस्वीर दूसरी होती.
भारी पड़ गया भरोसा बदलना
आधे चुनाव के वक्त पार्टी को अपना नारा बदलना भारी पड़ गया. पहले विज्ञापन में ‘भूपेश है तो भरोसा है’ वाला नारा चलता रहा, फिर अचानक कांग्रेस है तो भरोसा है’ का नारा आ गया. इससे जनता और सरकार में दुविधा फैल गई जिसने पार्टी को वोट प्रतिशत घटा दिया. सीएम के सलाहकारों की भूमिका को लेकर भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं में आक्रोश है. वे अपने पद के साथ सही न्याय करते या सीएम को सही सलाह देते तो इतनी बुरी स्थिति ना होती. सोशल मीडिया के प्रचार अभियान में भी कांग्रेस, भाजपा से खासी पिछड़ी रही. इसकी बड़ी वजह देर से की गई प्लानिंग रहा. कुल मिलाकर प्रदेश प्रभारी कुमारी सैलजा उतनी सफल नही रही, जितना की भाजपा के प्रदेश प्रभारी ओम माथुर रहे जिनके विजन ने भाजपा को जमीन से आसमान पर पहुंचा दिया.