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स्मृति.शेष : जो कार्यकर्ता का नहीं, वह पार्टी का नहीं ! फिर विधायक की टिकट काट दी थी स्व.लखीराम अग्रवाल ने. वरिष्ठ पत्रकार डॉ. अनिल द्विवेदी की शब्द.श्रद्धांजलि

जैसा कि कबीर ने अपने एक दोहे में कहा है : ज्यों की त्यों धर दीन्हीं, ठीक वैसे ही लखीराम जी के बारे में जो कुछ भी कह-लिख रहा हूं, वह अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर नहीं बल्कि दूसरों के श्रीमुख से निकले वचन हैं। लखीरामजी को लेकर मैंने करीबन एक दर्जन महानुभावों के साक्षात्कार किए, उनमें से एक भाजपा दिल्ली के संगठनमंत्री श्री विजय शर्मा हैं और दूसरे छत्तीसगढ़ भाजपा के संगठनमंत्री श्री राम प्रताप सिंह हैं। दोनों ने उनके साथ दाल-रोटी के संबंधों की तरह काम किया। श्री शर्मा कहते हैं : 1996 से लेकर 2004 तक लखीरामजी पार्टी के लिये सहमति का पर्याय बन गए थे। पल में आग उगलगना और पल मेें शांत समुद्र हो जाना उनके व्यवहार की बड़ी खासियत थी। उनका सुप्रसिद्ध जुमला रू मेरा मुँह क्यों खुलवाते हो, सभी जानते हैं, लेकिन स्पष्ट और सत्य कह देने लेकिन मन-भेद ना रखने वालों में मुझे लखीरामजी जैसे नेता ना के बराबर ही मिले। उन्होंने अपने समर्थकों की शक्ति का दुरूपयोग ना तो कभी किसी नेता के खिलाफ किया और ना ही पार्टी के विरोध में।

यहां मैं यह अवश्य जोड़ दूं कि इस बात से भला कौन इंकार करेगा कि पूरे देश में छत्तीसगढ़ की पहचान जो दो नेता बने, उनमें से एक कांग्रेस के विद्या भैया थे तो दूसरे भाजपा के लखीराम अग्रवाल जी। दोनों की अपनी कार्यशैली थी और लोगों को खुश या नाराज करने का अपना-अपना सलीका भी। लखीरामजी अतीतजीवी, विरही और अपने को गफलत में डालने वाले राजनेता भी नहीं थे। भोपाल के भाजपा मुख्यालय में विधायकों की एक बैठक चल रही थी। उनमें से एक (वर्तमान में छत्तीसगढ़ के दिगगज मंत्री) को कार्यकर्ताओं की व्यवस्था करने का जिम्मा दिया गया तो वे सहायता निधि का रोना रोने लगे। इस पर लखीरामजी ने सबके सामने उनसे व्यवस्था छीनते हुए कहा था कि जो कार्यकर्ता का नहीं, वह पार्टी का नहीं! अगले चुनाव में उस नेता ने नाक रगड़ दी मगर उसे टिकट नही मिल सकी।

छत्तीसगढ़ राज्य बनते ही जातिवाद की जो हवा उड़ी, उसने सामाजिक सौहार्द्र का ताना-बाना तो बिगड़ा ही, नेताओं के राजनीतिक ग्रॉफ को ग्रहण भी लगाया। एक पत्रकार के तौर पर आदिवासी भाजपा नेताओं को मैंने जितना जाना-समझा है, एक-दो को छोडक़र सभी लखीरामजी के नाम पर भरपूर नफरत से भरे दिखे। एक सतनामी नेता (जो अब दिवंगत हो गए हैं) का कहना था कि पटवा और लखीराम ने मिलकर हमें ना रोका होता तो आज हम इनकी (सवर्ण वर्ग की) छाती पर मूंग दल रहे होते। मैंने इस नेेता को आदर के साथ आईना दिखाते हुए याद दिलाया कि आदिवासी विधायक लखीराम साय, लखीराम जी के आर्शीवाद से ही प्रदेश अध्यक्ष बने थे। दूसरा सच यह है कि केन्द्र में जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार काबिज हुई तो पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनवाने में लखीरामजी ने किस कदर खासी मेहनत की थी? यकीन ना हो तो मेरे इस कथन की पुष्टि चंद्रशेखर साहू जी ने अपने लेख में भी की है। जातिगत दुर्बलता रखने वाले महाशयों से पूछना चाहिए कि आज जिस मंत्रीपद की मलाई वे चाट रहे हैं, क्या वह लखीरामजी जैसे नेताओं की मेहनत का प्रतिफल नहीं है क्या?

दूसरे राजनेता जब नाना प्रकार की बातें करते थे तो लखीराम जी दादा प्रकार की बातें करते थे। उनकी समझ, गहरी तार्किकता और बातों का वजन पार्टी के नेता बखूबी रखते थे। खासतौर पर जब कुशाभाऊ ठाकरे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने तो उनके लिए सहमति और लखीराम मानो पूरक शब्द हो चुके थे। हालांकि दिवंगत अग्रवाल को इसका एक खामियाजा यह उठाना पड़ा कि पार्टी का पिछड़ा और आदिवासी वर्ग मन ही मन उनसे दूर होता चला गया। वह इस कदर पहुंच चुका था कि कईयों ने दिल्ली में जाकर केंद्रीय नेताओं के खूब कान भरे थे मगर छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद नेता प्रतिपक्ष या पार्टी अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया में जिस कदर लखीरामजी की चली, उसके बाद यही नेता उनके कदमों पर शरणागत से दिखे थे। जनसंघ के दौर से लेकर देश की नम्बर वन पार्टी बनने तक दिवंगत लखीरामजी की निष्ठा पूजनीय थी। कोई नामसमझ भी इस बात पर अपना ठप्पा लगा ही देगा कि संसाधन और नेतृत्वक्षमता से धनी लखीरामजी को कभी कोई ऑफर नहीं आया होगा? लेकिन वे एक सेनापति की तरह पार्टी की कमान थामे रहे। शरीर के रूप में भले ही हमारे बीच वे ना हों लेकिन उनके बेटे स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल की रक्त-धमनियों में, उनके कार्य-व्यवहार में लखीरामजी के दर्शन होते रहेंगे। हार्दिक श्रद्धांजलि..!

( पूर्व मंत्री और भाजपा विधायक अमर अग्रवाल स्व.लखीराम अग्रवाल के सुपुत्र हैं )

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