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शब्द-श्रद्धांजलि : वे जिए सबको जीवन देने के लिए…पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के पिताश्री स्वर्गीय नंद कुमार बघेल के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाल रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार डॉ.अनिल द्विवेदी

पिता का ना होना बिना पुतलियों का आंख होना है. पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से कल सीएम हाउस में जब मुलाकात हुई तो उनकी स्मृति का शोरूम खुल गया. वे बताते हैं कि ‘पूरे पांच साल तक पिताजी सीएम हाउस में एक रात भी नही रूके. खाना तक नही खाया. एक—दो बार ऐसा हुआ कि सीएम हाउस आए तो कर्मचारियों ने बताया कि साहब व्यस्त हैं, आप इंतजार कीजिए. तो वे उलटे पैर चले जाते यह कहते हुए कि ‘वो व्यस्त है तो मैं उससे ज्यादा व्यस्त हूं. भूपेश बघेल के लिए उनकी यह भविष्यवाणी सच निकली कि ‘तुम एक दिन राजा बनोगे’

ईशोपनिषद् ने कहा है : कृतो स्मर: कृतम स्मर: अर्थात जीवन ऐसा जीएं, जो स्मरण करने योग्य हो. बघेलजी का जीवनपुर जक्शन रोमांचित करता है. उनमें एक स्वाभाविक प्रगतिवाद था. एक स्वाभिमानी, संघर्षशील, स्पष्टवादी विचारक जिसकी जद में नर से लेकर नारायण तक रहे. भगवान राम की आलोचना करते हुए उन्होंने पुस्तक लिखी ‘रावण को मत मारो जो काफी विवादित रही. कुर्मी जाति को लेकर उन्होंने ‘कुर्मी ब्राह्मण की नज़रों में क्या’ नामक किताब लिखी जिसकी खूब आलोचना हुई. बघेलजी का मानना था कि सत्य के लिए किसी से भी नही डरना. ना गुरू से, ना लोक से, ना मंत्र से, ना धर्मशास्त्रों से.

यही जीवटता हमने पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल में भी देखी. वे देश के पहले मुख्यमंत्री रहे होंगे जिन्होंने राजधर्म का पालन करते हुए विवादित विचारों के लिए अपने ही पिता को जेल भेज दिया. भूपेश बघेल बतलाते हैं कि बचपन में छह साल से 16 साल की उम्र तक पिताजी से लगभग दूर ही रहा ताकि हमारी बहस ना हो. वे गांव में रहा करते थे और मैं पैतृक गांव में. साल में एक बार गर्मी की छुटिटयों में उनका सानिध्य मिलता था लेकिन इस दौरान वे मुझे रामायण, महाभारत, गीता इत्यादि धर्मग्रंथों का पाठन करवा देते थे. बहुत जीवट थे वे. हमारी लगभग 300 एकड़ जमीन थी जिसमें खाद डालने से लेकर सींचना, फसल काटना इत्यादि काम वे ही करते. समय मिलता तो समाजसेवा और जनजागरण में लगे रहते.

बुढ़ापा उम्र का रेस्टहाउस होता है लेकिन बाबूजी ना थके, ना रूके. 2018 के विधानसभा चुनाव के पहले नंद कुमार बघेल ने लगभग सभी विधानसभा क्षेत्रों की यात्रा करके जनता का मूड पहचान लिया था. भूपेश बघेल बताते हैं, ‘1989 में उनसे झगड़े के बाद मैंने घर छोड़ दिया था. अपने हों या पराये, उनके सैद्धांतिक टूल्स ने कभी कोई सरहद नही बाँधी. वे पहले सर्वोदयी रहे, फिर समाजवादी और अंत में बुदधम शरणम गच्छामि हो गए थे. किसान आंदोलनों के माध्यम से कई बार अन्नदाता को न्याय दिलाने की पहल की. जाति और वर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ आजीवन बोलते रहे. उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों को विदेशी कहने वाले बयान ने उन्हें देशभर में चर्चित कर दिया था.

आदिमता और आधुनिकता के बीच झूलते इस समाज में गुरू घासीदास का संदेश ही उनकी प्रेरणा रहा : मनखे मनखे एक समान. वे पहले कांग्रेसी रहे, फिर समाजवादी हुए और जीवन के अंतिम क्षणों में बौद्ध हो गए थे. भूपेश बघेल की माताजी बिंदेश्वरी बघेल का निधन हुआ तो उन्होंने मां का अंतिम संस्कार हिन्दु रीति रिवाज से किया लेकिन पति के तौर पर नंदकुमार बघेल ने बौद्ध रीतिरिवाजों को अपनाया. मध्य प्रदेश से कांग्रेस के राज्यसभा सांसद राजमणि पटेल बताते हैं कि ‘एक बार रायपुर में उनसे मिले तो उन्होंने अंबिकापुर चलने के लिए कहा. बाद में पता चला कि वे बाथरूम में गिरकर चोटिल हो गए लेकिन सर पर पटटी बांधे, लड़खड़ाती जुबान के साथ उन्होंने सभा को संबोधित किया. अदभुत जीवटता थी उनमें’ जीवन के अंतिम दौर में नंदकुमार बघेल ‘जॉय आफ शेयरिंग’ हो गए थे.

श्री बघेल अस्पताल में जब जिंदगी के अंतिम दिन काट रहे थे तो उन्होंने भूपेश बघेल से अंतिम बार कहा था : सबसे अच्छा संदेश गुरू घासीदास ने दिया और वह था मनखे मनखे एक समान. नंद कुमार बघेल जी मानो एक ऐसी किताब थे जिसमें हमारे जैसे हजारों अध्याय जुड़े हैं. आज वे सशरीर हमारे बीच नही हैं लेकिन स्मृतियों में हमेशा बने रहेंगे. नारायण.

(लेखक दैनिक प्रखर समाचार पत्र के स्थानीय संपादक हैं)

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