कोयला खनन विवाद: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने समिति की याचिका की खारिज, सरकार के आदेश को सही ठहराया

बिगुल
बिलासपुर हाईकोर्ट (Bilaspur High Court) ने लंबे समय से चल रहे हसदेव अरण्य (Hasdeo Aranya) कोयला खनन विवाद पर गुरुवार को अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने ग्राम घठबार्रा (Ghathbarra) के निवासियों द्वारा दायर याचिका को खारिज करते हुए कहा कि सामुदायिक वन अधिकारों का कोई ठोस दावा साबित नहीं हुआ है।
जस्टिस राकेश मोहन पांडेय की एकलपीठ ने सुनवाई करते हुए कहा कि ग्रामसभा की बैठकों में सामुदायिक अधिकारों को लेकर कोई प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। वर्ष 2008 और 2011 की बैठकों में केवल व्यक्तिगत भूमि और पट्टों पर चर्चा की गई थी, इसलिए सामुदायिक वन अधिकारों के उल्लंघन का दावा निराधार है।
याचिकाकर्ताओं ने खनन मंजूरी को बताया था अवैध
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इस मामले में हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति (Hasdeo Aranya Bachao Sangharsh Samiti) और जयनंदन सिंह पोर्ते (Jaynandan Singh Porte) ने याचिका दायर की थी। उनका कहना था कि घठबार्रा गांव को वन अधिकार कानून 2006 (Forest Rights Act, 2006) के तहत सामुदायिक अधिकार मिले थे, जिन्हें 2016 में जिला समिति ने रद्द कर दिया।
याचिकाकर्ताओं ने 2022 में फेज-2 कोल ब्लॉक (Coal Block Phase-2) की मंजूरी को भी चुनौती दी थी, यह कहते हुए कि ग्रामसभा की सहमति के बिना खनन की अनुमति दी गई है।
राज्य सरकार और कंपनी के पक्ष में दलीलें
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राज्य सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता राजकुमार गुप्ता (Additional Advocate General Rajkumar Gupta) ने अदालत में कहा कि हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति कोई वैधानिक संस्था नहीं है, इसलिए वह ग्रामसभा की ओर से दावा पेश नहीं कर सकती।
वहीं राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (RRVUNL) की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. निर्मल शुक्ला (Dr. Nirmal Shukla) ने दलील दी कि कोल ब्लॉक का आवंटन संसद द्वारा पारित कोल माइंस (स्पेशल प्रोविज़न) एक्ट 2015 के तहत हुआ है, जो अन्य कानूनों पर प्राथमिकता रखता है। इसलिए वन अधिकार कानून (Forest Rights Act) इसमें बाधक नहीं है।
कोर्ट ने सरकार के आदेशों को सही ठहराया
हाईकोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार के वर्ष 2012 और 2022 के उन आदेशों को वैध ठहराया जिनके तहत पारसा ईस्ट और केते बासन (PEKB) कोल ब्लॉक में खनन की अनुमति दी गई थी।
कोर्ट ने कहा कि खनन के लिए आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन किया गया और ग्रामसभा की किसी भी बैठक में सामुदायिक वन अधिकारों से संबंधित कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला। इसलिए जिला समिति द्वारा 2016 में सामुदायिक अधिकारों को रद्द करना उचित था।
सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ग्रामसभा की ओर से अधिकृत नहीं थे और सामुदायिक अधिकारों का कोई वैधानिक दावा सिद्ध नहीं हो पाया।