बच्चों की जिंदगी निगल रहे मौत के कुएं, खुले बोरवेल को बंद कराने पर प्रशासन सुस्त
बिगुल
मध्यप्रदेश :- राजगढ़ की पांच साल बच्ची माही हो या फिर विदिशा की अस्मिता, इन बेटियों की मौत के लिए हमारी व्यवस्था भी कम जिम्मेदार नहीं है। जिस उम्र में उन्हें अपनी मां की गोद चाहिए थी, वे लापरवाही के गड्ढों (बोरवेल) में समा गईं। तन्मय, लोकेश जैसे बच्चे भी इसी मौत के कुएं का शिकार हो गए और हमारा सिस्टम अब तक कोई कड़े कदम नहीं उठा पाया।अब भी खुले बोरवेल के रूप में जगह-जगह मौत के गड्ढे व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। हर घटना के बाद सरकार व जिला प्रशासन खुले बोरवेल को बंद कराने का दिखावा करता है।
मैदानी अमले को सर्वे कराने के निर्देश दिए जाते हैं। कुछ जगह इधर-उधर की धाराओं में प्रकरण भी दर्ज कर लिया जाता है, लेकिन सिस्टम में झोल इतने हैं कि खेतों में या घरों के बाहर बोर खुला छोड़ने की लापरवाही पर अंकुश नहीं लग पाता। चंद कागजी कार्रवाई के बाद प्रशासन भी सुस्त हो जाता है।दरअसल, प्रशासन की यही सुस्ती प्रदेश भर में जगह जगह खुले बोरबेल में बच्चों की मौत का कारण बन रही है। सवाल उठने पर प्रशासनिक अधिकारियों का टका सा जवाब होता है, क्या करें, कार्रवाई का कोई नियम ही नहीं है। गृहमंत्री डा. नरोत्तम मिश्रा ने छतरपुर में ऐसी ही घटना के बाद यह कहकर प्रशासन को कड़ा संदेश दिया था कि जिस बोरवेल में गिरने से बच्चे की मौत होगी, उस पर कार्रवाई की जाएगी। बच्चे को बोरवेल से निकालने के लिए चलने वाले आपरेशन का खर्च भी उन्हीं से वसूला जाएगा।
इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाइकोर्ट तक ने स्वत: संज्ञान लेकर राज्य सरकार को प्रभावी कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे। बावजूद इसके प्रदेश में अब तक न कोई कानून बना और न ही बोरवेल कराने वालों के लिए कोई गाइड लाइन तैयार की गई।देश के विभिन्न राज्यों में खुले बोरवेल में गिरकर बच्चों की मौत होने की घटनाओं को रोकने के लिए छह अगस्त 2010 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसएच कापड़िया, न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और स्वतंत्र कुमार ने सभी राज्य सरकारों के लिए छह बिंदुओं की गाइड लाइन जारी की थी। इसमें कहा गया था कि किसी भी भूस्वामी को बोरवेल के निर्माण एवं मरम्मत आदि से संबंधित कार्य की जानकारी 15 दिन पहले कलेक्टर या पटवारी को देनी होगी।