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छत्तीस घाट : आरएसएस ने कितने साहित्यकार दिए..कवि नरेश सक्सेना के सवाल का जवाब दे रहे हैं डॉ. अनिल द्विवेदी..दीए जलाइए दिल नही…पढ़िए पूरा लेख

पाण्डेय की टिप्पणी एक भावुक उबाल भर है इसलिए उस पर समय जाया करना उचित नही समझता परंतु क्या करूं, बीच में एक अदृश्य नैतिक वकील आ खड़ा होता है। कविवर नरेश सक्सेना वरिष्ठ कवि हैं। उनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में यदा-कदा पढ़ता रहा हूं। वरिष्ठ हैं इसलिए सम्मानीय भी हैं लेकिन साहित्यिक औदार्य की यह गिलगिली संकीर्णता वाली टिप्पणी लेखक की प्रतिष्ठा के अनुरूप तो हरगिज नही है। न्यूज चैनल के साहित्यिक मंच पर उन्होंने जो कुछ कहा, यू-टयूब पर मौजूं है, लेख के अंत में वीडियो का लिंक है, उसे देख-सुन लीजिए ताकि संदर्भ स्पष्टतः समझ सकें।

सक्सेना की बैचेनी देखिए, ‘अंधेरे में आप पहाड़ खड़ा कर दीजिए दिखाई नही देता लेकिन एक दीपक जला दीजिए, पहाड़ दिखने लगेगा। हम दीपक जलाने की कोशिश करते हैं इन पहाड़ों के खिलाफ। और पहाड़ क्या है, महाराष्ट्र का नतीजा आ गया, वही पहाड़ है। इसके बाद उपस्थित श्रोता खूब तालियां बजाते हैं। जाहिरतौर पर इसे आम दर्शक की स्वीकार्यता या खारिज करने की प्रतिध्वनि कह सकते हैं। सक्सेना यहीं नही रूके, उन्होंने फिर कहा कि ‘सौ साल से बौद्धिक कर रहे हैं ये लोग लेकिन एक आदमी यानि साहित्यकार पैदा नही हुआ जो आरएसएस के बाहर जाना जाता हो, इसके बाद सभा में मुर्दानी छा गई, सक्सेना की इस शेखचिल्ली वाली टिप्पणी पर श्रोताओं ने ताली तो छोड़िए, चुटकी तक नही बजाई। स्पष्ट है कि उन्होंने सक्सेना के दावे को सिरे से खारिज कर दिया। सनद रहे लोकतंत्र में पब्लिक नैतिक न्यायाधीश होती है।

अपनी स्मृतियों, अनुभवों और प्रत्यक्ष के आधार पर कह सकता हूं कि साहित्य का वामी-गिरोह जिस राष्ट्रवादी विचारधारा को अब तक अछूत मानते हुए उसे नजरअंदाज और दुष्प्रचारित करता रहा, उससे तीन गुना ताकत के साथ वह देश में स्वीकार हो रही है। इस दौर में जब आरएसएस अपनी स्थापना का 100 साल पूरा करने जा रहा है, वामपंथी अपनी विचारधारा की तेरहवीं, या कह लें मेटाफिजिकल स्यूसाइड करने में लगे हैं। सक्सेना साहब की यह शेखचिल्ली टिप्पणी उनके इस डर का प्रकटीकरण ही है कि राष्ट्रवाद की लहर के सामने वामपंथ का दीया कौन जलाए रखेगा। खैर..स्व को ही स्वर्ग मानने वाले सक्सेना बखूबी जानते हैं कि भाजपा महज एक राजनीतिक धारा भर है, उसकी ‘गर्भनाल‘ तो आरएसएस है इसलिए महाराष्ट्र चुनाव में जीती भाजपा पर वे हमला नही बोलते बल्कि संघ पर खीझ निकाल रहे हैं, यथा.तथ्यता को अस्वीकार कर रहे हैं।

आरएसएस की साहित्यिक उपस्थिति को लेकर जो समझ वरिष्ठ कविवर ने दिखाई है, वह कातरताबोध ही दिखता है। संघ का वैचारिक दर्शन और कार्यपद्धति शुद्ध स्वदेशी केंद्रित है। वामपंथियों या प्रगतिशीलों की तरह इस देशभक्त संगठन ने स्तालिन, तालस्ताय, माओ, मार्कस, अरस्तु का दर्शन या देवता उधार में नही लिया और ना ही अपनी सुविधा और अवसर के अनुरूप अपनी दृष्टि बदली। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर जी साहित्यकार थे, यह तो खुद सक्सेना जी ने स्वीकार कर लिया है, इन्हीं के समकक्ष कुछ नाम और हैं जैसे नरेन्द्र कोहली, क्षमा कौल, भैरप्पाजी, बालशौरी रेडडी, बलवंत ज्ञानी, त्रिभुवन नाथ शुक्ल, डॉ नागेन्द्र, विद्यानिवास मिश्र, देवेंद्र स्वरूप, प.विष्णुकांत शास्त्री, स्व.मृदुला सिन्हा इत्यादि साहित्यकार संघ के बौद्धिक.आख्यान की ही देन हैं लेकिन सक्सेना जैसों को ये नाम इसलिए नही सुहाते क्योंकि ये उनके गिरोह के ना होकर राष्ट्रवादी हैं।

आप पूछ सकते हैं कि इनमें से कितनों को सरकारी और ज्ञानपीठ संस्थाओं के अवार्ड मिले। तो खुद के द्वारा-खुद के लिए’ के सिद्धांत पर चलते हुए इन वामपंथी और प्रगतिशील साहित्यिक संस्थाओं ने सालों तक जो साहित्यिक अवार्ड बांटे, उससे राष्ट्रवादी लेखकों को किनारा करके रखा क्योंकि ये लोग वामपंथियों की तरह मनगढ़ंत कहानियां नही गढ़ते। इसके विपरीत आरएसएस ने सभी विचारधाराओं और विचारकों का सम्मान किया है जब तक कि वह देशविरोधी ना हो। हम सबको साथ लेकर चलने पर यकीन करते हैं। आज भी भाजपा सरकारों में प्रगतिशील और वामपंथी विचारकों का गिरोह साहित्यिक अकादमियों और मीडिया संगठनों में कुण्डली जमाये बैठा हुआ है। उन्हें अवार्ड मिल रहे हैं और अवार्ड वापसी’ का नाटक करके हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के खिलाफ जहर उगलने का कोई मौका भी नही छोड़ते।

साहित्यकार विचारधारा से निकलते हैं इसलिए यह कहने में संकोच नही कि साहित्यकारों की सेना खड़ा करने की बजाय संगठन ने राष्ट्रवादी विचारधारा के निर्बाध और अप्रदूषित बहाव पर ज्यादा जोर दिया। इसी धारा से कई संगठन जन्मे और हजारों विचारक भी। एकात्म मानवदर्शन देने वाले पं.दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, भानुप्रताप शुक्ल, डॉ. प्रभाकर उनियाल, प्रो.के जी सुरेश, राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा, लेखक तरूण विजय, राम माधव, जे.नंदकुमार, डॉ.कुलदीप चंद्र अग्निहोत्री, एस गुरूमूर्ति, डॉ.संजय द्विवेदी, हितेश शंकर, जैसे पत्रकार, लेखक, संपादक और साहित्यकार बौद्धिक आलोड़न का परचम फहरा रहे हैं। संघ के विचारों से प्रेरित होकर कई बुद्धिजीवी अकादमिक संस्थानों में, अखबारों में, किताबों में, न्यूज चैनलों में बैठकर राष्ट्रवाद के पक्ष में गर्जन-तर्जन कर रहे हैं।

याद दिलाता चलूं कि संघ ने 1966 में अखिल भारतीय साहित्य परिषद जैसी संस्था खड़ी करके साहित्य में राष्टवादी उपस्थिति दर्ज कराई है। देशभर में 250 शाखाएं संचालित हो रही हैं जिससे हजारों साहित्यकार संस्था से जुड़े हैं जो समाज के कल्याण के लिए साहित्य रचना कर रहे हैं ना कि किसी पुरस्कार पाने की लालसा में, जिन्होंने देश की संस्कृति को गहराई से आत्मसात कर नया विमर्श खड़ा किया है। इसके मुकाबले वामपंथ और प्रगतिशील संगठन बौने साबित होते जा रहे हैं। नरेश सक्सेना जैसे दीपक एक उम्मीद के तौर पर जल रहे हों लेकिन हकीकती से सब वाकिफ हैं कि आप स्वीकार होने के बजाय खारिज किए जा रहे हैं। सक्सेना साहब की एक कविता की लाइनें हैं : पुल पार करने से पुल पार होता है, नदी पार नही होती लेकिन दुनिया के सारे पुल नदी पार करने के लिए ही बनाए जाते हैं।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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